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कविता

औरों की भर रहे तिजोरी

जगदीश व्योम


औरों की भर रहे तिजोरी
अपने घर के लोग।

सच कहना तो ठीक
मगर इतना सच नहीं कहो
जैसे सहती रहीं पीढ़ियाँ
तुम भी वही सहो
आजादी है, बोलो
लेकिन कुछ भी मत बोलो
जनता के मन में
सच्चाई का विष
मत घोलो
नियति-नटी कर रही सदा से
ऐसे अजब प्रयोग।

राजा चुप रानी भी चुप हैं
चुप सारे प्यादे
सिसक रहे सब
सैंतालिस से पहले के वादे
घर का कितना माल-खजाना
बाहर चला गया
बहता हुआ पसीना फिर
इत्रों से छला गया
जो बोला लग गया उसी पर
एक नया अभियोग।

सहम गई है हवा
लग रहा आँधी आएगी
अहंकार के छानी-छप्पर
ले उड़ जाएगी
भोला राजा रहा ऊँघता
जनता बेचारी
सभासदों ने कदम-कदम पर
की है मक्कारी
कोई अनहद उठे
कहीं से हो ऐसा संयोग।


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